राजनीति

यूपी में निषादों के हाथ सियासी पतवार

अपनी नाव में बिठा कर गंगा पार कराने के लिए केवट ने प्रभु राम के चरण धोए थे, लेकिन आज राजनीतिक परिस्थितियां ऐसी हैं कि सभी दल उसी निषाद समाज की मान-मनौव्वल में लगे हैं कि चुनावी नैया पार हो जाए। इस समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले छोटे दल यह संदेश दे चुके हैं कि सियासी पतवार उनके हाथ में है।

निषाद समाज अपने मजबूत वोटबैंक से वह बड़े राजनीतिक दलों का खेल कई सीटों पर बिगाड़ सकते हैं। चुनौतीपूर्ण चुनाव में कोई दल किसी तरह का जोखिम नहीं उठाना चाहता, इसलिए भाजपा हो या फिर सपा व अन्य दल, सभी का प्रयास है कि निषाद समाज उनके साथ रहे। इन्हें भी किसी बड़ी पार्टी के साथ जाने में कोई गुरेज नहीं है, लेकिन अपनी राजनीतिक हैसियत बढ़ाने के लिए वह इसकी बड़ी कीमत वसूलने की कोशिश में भी हैं।

उत्तर प्रदेश की 50 फीसद से अधिक पिछड़ी आबादी में तकरीबन 13 फीसद निषाद हैं जो अति पिछड़ी उपजातियों में माने जाते हैं। समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले नेताओं का स्पष्ट तौर पर दावा है कि राज्य की 403 विधानसभा सीटों में से उनके समाज का 160 सीटों पर ठीक-ठाक प्रभाव है। इन सीटों पर 60 हजार से लेकर 1.20 लाख तक वोट निषाद समाज का है। वैसे अन्य सीटों पर भी 10-20 हजार वोट का दावा किया जाता है। यही कारण रहा है कि निषाद समाज के वोटबैंक पर सभी राजनीतिक पार्टियों की सदैव नजर रही है। इस वोटबैंक को साधने के लिए समय-समय पर बड़े-बड़े दांव चले भी गए हैं। सबसे बड़ा दांव समाज की अति पिछड़ी उपजातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने या वैसा ही आरक्षण देने की मांग का रहा है। जिस पार्टी ने भी इस दिशा में कुछ करने की बात कही, समाज का वोट उसी पार्टी को जाता रहा है।

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