Spiritual/धर्म

हमें स्वाधीन करते हैं वेद

वेद सनातनी संस्कृति के प्राचीनतम ग्रंथ हैं। विश्व की सबसे प्राचीन लिखित कृतियों में से एक होने के कारण वेदों को संसार का आदिग्रंथ कहा गया है। वेद अपौरुषेय हैं अर्थात चारों वेद ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद व अथर्ववेद मानव रचित नहीं, अपितु गहरी ध्यानावस्था में स्थित ऋषियों को अनुभूति में प्राप्त हुए। संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 2007 में वेदों को संसार के स्मृति रजिस्टर में शामिल करने के लिए एक विशेष प्रस्ताव पारित किया। उसमें कहा गया कि, ‘वेद सामान्यतया हिंदू धर्म के ग्रंथ माने जाते हैं, परंतु सभ्यता के इतिहास की प्रथम साहित्यिक रचनाओं में शामिल होने के कारण वे मात्र धर्म ग्रंथ से बहुत ऊपर हैं।’वेद शब्द ‘विद्’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है ज्ञान। ऋषियों को अनुभूत यह ज्ञान उन्होंने ऋषिकुमारों को वाणी के माध्यम से प्रदान किया, इसलिए वेद को श्रुति भी कहा जाता है। वेद में जीवन जीने के लिए स्वराज्य की प्रेरणा मिलती है। ‘स्वराज’ शब्द का अर्थ है ‘स्व’ का राज्य। ‘स्व’ शब्द ‘आत्मा’ के लिए भी प्रयोग होता है। इस प्रकार स्वराज का अर्थ ‘आत्मा का राज्य’ है। भौतिकवादी संसार में अक्सर लोग मन के वशीभूत होकर अपने जीवन पर भौतिक वस्तुओं का राज्य बना लेते हैं, जबकि स्वराज का अर्थ है स्थानीय लोगों की सत्ता।संसार के सभी लोग जब अपनी आत्मा की आवाज सुनेंगे तो उनके जीवन में आत्मा और परमात्मा की दिव्य शक्तियों का प्रभाव दिखाई देगा। इसी प्रकार सामाजिक और राष्ट्रीय स्तर पर जब स्थानीय लोगों के हाथ में सत्ता होती है तो उनका जीवनयापन प्रसन्नता और खुशहाली के साथ होता है। स्वराज शब्द का मूल भाव ‘स्व’ से जुड़ा है। इसी ‘स्व’ के साथ अनेक प्रेरणाओं का निर्माण हुआ, जैसे स्वाभिमान, स्वाधीनता और स्वावलंबन।वेद में जब स्वाभिमान की बात आती है तो हमें अपने ‘स्व’ अर्थात जीवन के मूल तत्व आत्मा और परमात्मा पर गर्व होता है। इसी ‘स्व’ के सहारे हमें स्वाधीनता की प्रेरणा मिली और हमारा जीवन भौतिक पदार्थों से लेकर विदेशी सत्ता की गुलामी से स्वतंत्रता की ओर अग्रसर हुआ। इसी ‘स्व’ के साथ हमने स्वावलंबन का पाठ पढ़ा और हमारा जीवन सुख एवं समृद्धि से युक्त हो गया।वेद में नारियों को पूजनीय मानते हुए उन्हें परिवार का नेतृत्व सौंपा गया। वेद की शिक्षाओं से ओतप्रोत अनेक विदुषियों ने वैदिक धर्म की ध्वजा हाथ में लेकर समाज को आध्यात्मिकता और नैतिकता का पाठ पढ़ाया। वेदों ने मानव जीवन को सृष्टि का सर्वोच्च जीव तत्व बताया और इस बात की प्रेरणा दी कि अन्य जीवों के प्रति प्रेम और उदारता का भाव पैदा करे।ऋग्वेद और यजुर्वेद में हिंसा से दूर रहने के अनेक मंत्र हमें जीव तत्व के प्रति सहानुभूति का संदेश देते हैं। अथर्ववेद के संदेश ‘सत्येन उत्भित्ता भूमि:’ ने मानव जीवन में नैतिकता का मूल आधार सत्य को स्थापित किया और कहा कि सत्य ही पृथ्वी को धारण करता है। सत्य, अहिंसा, दया, दान जैसे अनेक नैतिक मूल्यों की स्थापना वेद ग्रंथों के माध्यम से की गई है।वेदों में आंतरिक पूजा महत्वपूर्ण है, क्योंकि वेद की उत्पत्ति ही ध्यानावस्था रूपी आंतरिक पूजा का सुफल थी। ध्यानावस्था में अपने अंदर ईश्वर की ज्योति को प्रज्वलित करने के बाद बाहरी पूजा के रूप में ऋग्वेद के प्रथम मंत्र ने ‘अग्नि मीले पुरोहितम’ का संदेश देकर प्रेरित किया कि अंदर और बाहर हमें अग्नि की पूजा करनी है। बाहरी पूजा का उद्देश्य है पूरे समाज का कल्याण। इस प्रकार आध्यात्मिकता के साथ-साथ सामाजिकता की सुंदर रचना वेद के एक ही सूत्र से निकलती है। समाज की कल्याण रूपी पूजा ने यज्ञों का रूप धारण किया। इसलिए वेद द्वारा विकसित संस्कृति को ‘याज्ञिक संस्कृति’ के नाम से जाना जाता है।वेद में मानव जीवन को चार आश्रमों में बांटा गया- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। ब्रह्मचर्य अवस्था में अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण रखते हुए ब्रह्म का ज्ञान और सांसारिक शिक्षाओं को प्राप्त करना शामिल था। गृहस्थ जीवन का उद्देश्य परिवार को धर्म और अर्थ से लाभान्वित करना था। काम माध्यम मात्र था। तीसरे व चौथे वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम के माध्यम से समाज सेवा के साथ-साथ अपनी आध्यात्मिक शक्तियों का विकास करते हुए मोक्ष की तरफ अग्रसर होने की प्रेरणाएं मिलती हैं। इस प्रकार चार आश्रमों ने मानव जीवन के चार उद्देश्यों को पूरा करने के मार्ग उपलब्ध कराए।वेद में वर्ण व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य था कार्य विभाजन अर्थात ब्रह्म और अन्य शिक्षाओं का प्रचार करने वाला ब्राह्मण, शारीरिक और मानसिक बल के आधार पर लोगों की रक्षा करने वाला क्षत्रिय, अन्न और जीवन के लिए अन्य उपयोगी सामग्री को उपलब्ध कराने वाला व्यापारी वर्ग वैश्य और उपरोक्त समस्त शिक्षा और कलाओं से अनभिज्ञ व्यक्ति सेवा कार्यों में लगा शूद्र कहलाया। परंतु विदेशी शासकों के दौर में वैदिक काल की यह कर्म व्यवस्था जन्म पर आधारित मानी जाने लगी और भेदभाव का कारण बन गई।वेद में संपूर्ण मानवता के कल्याण के उपदेश मिलते हैं। ‘वसुधैव कुटुंबकम’ के माध्यम से वेद समूची सृष्टि को एक वृहद परिवार मानते हैं। यह संयुक्त राष्ट्र संघ के लिए एक महान लक्ष्य बन सकता है, जिसके माध्यम से विश्व के समस्त कलह, क्लेश समाप्त हो सकते हैं। आधुनिक मानव को वेदों की उस कल्याणकारी शिक्षा की आवश्यकता है, जहां विज्ञान का प्रयोग विनाश के स्थान पर आध्यात्मिक शक्तियों का संवर्धन करने और सबका कल्याण करने की शिक्षा पर केंद्रित हो।वेद का स्वास्थ्य विज्ञान एक ऐसे जीवन की कल्पना प्रस्तुत करता है, जहां व्यक्ति सदैव स्वस्थ रहे और कभी रोगी न हो। दुर्घटनावश प्राप्त शारीरिक विपत्तियों का उपचार भी प्रकृति प्रदत्त भोजन सामग्री से ही संभव हो सकता है। वेद समूची सृष्टि के ग्रह-उपग्रहों के साथ-साथ सूर्य की अग्नि, वायु, जल आदि तत्वों के माध्यम से अनेक वैज्ञानिक क्रियाओं का सूत्र भी उपलब्ध कराते हैं। मनोविज्ञान से लेकर कृषि और मौसम की जानकारियों के सूत्र भी वेदों से प्राप्त किए जाते रहे हैं।वैदिक गणित तो आधुनिक मानव को भी आश्चर्यचकित कर देता है। इस प्रकार वेद व्यक्ति को एक स्वावलंबी इन्सान बनाकर सुख एवं समृद्धि का स्थायी आधार उपलब्ध कराने में सक्षम है। परमार्थ निकेतन आश्रम में हमने वेद के स्वाध्याय और अनुसंधान का कार्यक्रम संचालित किया है, जिसमें विश्व के अनेक देशों के श्रद्धालु महानुभाव भाग ले रहे हैं। वेद का उचित लाभ आधुनिक युग को तभी मिल सकता है, जब उच्चशिक्षित वैज्ञानिक समुदाय वेद मंत्रों को गहराई से समङो और उन सूत्रों से मानव समुदाय को अपने जीवन और आध्यात्मिक शक्तियों पर स्वाभिमान के योग्य बना दे।

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