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जब नहीं था अधिकार तब नारी शिक्षा की पहरुआ बनी सावित्रीबाई फुले

पहले के समाज में जब नारी शिक्षा किसी पाप से कम नहीं समझी जाती थी, सावित्री बाई फुले को लड़कियों को पढ़ाने-लिखाने का दंड भुगतना पड़ा था। विद्यालय जाने के लिए जब वह निकलती थीं तो उनके थैले में एक और साड़ी होती थी, क्योंकि रास्ते में खरी-खोटी सुनाने के साथ ही लोग उन पर कीचड़ फेंकते थे। प्रतिशोध का यह दौर बहुत लंबा चला, लेकिन सावित्रीबाई मुसीबतों का सामना करते हुए आगे ही बढ़ती रहीं…पति महात्मा ज्योतिबा फुले की तरह सावित्रीबाई फुले भी मशहूर कवि थीं। मराठी की इस आदि कवयित्री की एक आरंभिक कविता है: ‘जाओ, जाकर पढ़ो-लिखो, और बनो मेहनती और आत्मनिर्भर। काम करो, धन और ज्ञान एकत्र करो, क्योंकि ज्ञान के बिना खो जाता है सब कुछ। ज्ञान के बिना हम बन जाते हैं पशु। इसलिए खाली न बैठो। जाओ, जाकर शिक्षा लो। दमितों और त्याच्य के दु:खों का अंत करो। सुनहरा मौका न गंवाओ सीखने का।

सावित्रीबाई की यह बात मानकर महिलाएं पढ़ने-लिखने तो चली जातीं, पर सवाल था उन्हें पढ़ाता-लिखाता कौन? ज्योतिबा ने अस्पृश्य जाति की नौ छात्राओं को एकत्र कर विद्यालय खोल तो दिया, पर शिक्षिकाएं कहां से लाते? लिहाजा, पहले पति फिर मिसेज मिशेल के नार्मल स्कूल से प्रशिक्षण लेकर यह जिम्मेदारी संभालनी पड़ी खुद सावित्रीबाई को।

पुणे के बुधवार पेठ में भारत में अपने ढंग का जो पहला बालिका विद्यालय तीन जनवरी, 1848 को खुला था, सावित्रीबाई को ही उसकी पहली शिक्षिका होने का श्रेय हासिल हुआ। उन्होंने बाद में 17 नारी विद्यालय और खोले, पर पहला ही अनुभव विकट था।

फुले दंपती ने स्कूल की प्रेरणा सिंथिया फैरार नामक 31 वर्षीया अमेरिकी महिला द्वारा अहमदनगर के अमेरिकन मिशन में चलाए जा रहे लड़कियों के स्कूल से ग्रहण की थी, जो उन्होंने वर्ष 1827 में भारत आने के बाद खोला था। विरोधों के बावज़ूद वर्ष 1829 तक इस स्कूल में करीब 400 लड़कियां पढ़ रही थीं।

वर्ष 1830 के दौरान भी पुणे के शनिवार वाडा में गुप्त रूप से सात-आठ लड़कियों के लिए स्कूल चलाए जाने का उल्लेख मिलता है, लेकिन ये सभी लड़कियां सवर्ण समुदाय की थीं। विरोधों के बीच भी फुले दंपती का विद्यालय डंके की चोट पर चल रहा था और उसमें पढऩे वाली लगभग सभी लड़कियां वंचित वर्ग से थीं।

करीब पौने दो सौ वर्ष पहले के समाज में जब नारी शिक्षा किसी पाप से कम नहीं समझी जाती थी, सावित्री बाई को उन्हें पढ़ाने-लिखाने का दंड भुगतना पड़ा। विद्यालय जाने के लिए जब वह निकलतीं तो उनके थैले में एक और साड़ी होती, क्योंकि रास्ते में लोग उन पर गंदगी और कीचड़ डाल देते थे। प्रतिशोध और संत्रास का यह दौर लंबा चला।

इंतिहा हुई, जब द्वेषियों ने साजिश रचकर उन्हें उनके ही घर से निकलवा दिया, लेकिन अपनी निष्ठा और नि:स्वार्थ सेवा भावना से धीरे-धीरे फुले दंपती ने सवर्ण समुदाय के घोर विरोधियों को भी अपना बना लिया। एक दिन ऐसा आया, जब सवर्णों के उकसावे पर उन्हें जान से मारने की कोशिश करने वाले घोंडीराव नामदेव कुम्हार और रोद्रे खुद उनके शिष्य हो गए। इनमें एक तो उनका अंगरक्षक बन गया।वि_ल बालवेकर, पं. मोरेश्वर शास्त्री, विष्णुपंत शत्ते, मानाजी डेनाले, सखाराम यशवंत परांजपे, दादोबा पांडुरंग तरबंडकर, अण्णा साहब चिपलूणकर, सदाशिवराव बल्लाल गोवंडे, बापुराव मांडे सरीखे उनके सबसे घनिष्ठ मित्र और सहयोगी ब्राह्मण समुदाय से हुए। गोवंडे और चिपलूणकर ने जहां स्कूल खोलने के लिए उन्हें जगह दी वहीं मुस्लिम भाई उस्मान शेख ने जगह के साथ पढ़ाने के लिए अपनी बहन फातिमा शेख को भी जिम्मेदारी सौंपी। फिर सगुणाबाई भी शिक्षिका बनीं। उनके स्कूल में सभी धर्मों और जातियों की बालिकाएं साथ में पढऩे लगीं। इनमें वंचित वर्ग की लड़कियां ज्यादा थीं।

देशभर में दंपती के रूप में महात्मा गांधी और कस्तूरबा गांधी का जो स्थान है वही महाराष्ट्र में फुले दंपती को प्राप्त है। तीन जनवरी, 1831 को सातारा जिले नायगांव नामक छोटे से गांव में खंदोजी नेवसे और लक्ष्मी के घर जन्मीं थीं सावित्रीबाई। च्योतिबा से विवाह के समय उनकी उम्र महज नौ वर्ष की थी।

सावित्रीबाई ने पति की तरह अपने जीवन को विधवा विवाह, बाल विवाह, महिला मुक्ति, सतीप्रथा, विशेषकर वंचित वर्ग की महिलाओं के शिक्षण और अंधविश्वास व अस्पृश्यता निवारण जैसे सामाजिक सुधारों को समर्पित कर दिया। धार्मिक संस्कारों में उच्च कुलों के एकाधिकार को तोडऩे के लिए दोनों ने ब्राह्मण पुरोहित के बगैर ही विवाह संस्कार आरंभ कराया, जिसे मुंबई उच्च न्यायालय ने भी मान्य किया।

28 जनवरी, 1853 को दुष्कर्म पीडि़त गर्भवती स्त्रियों के लिए उन्होंने बाल हत्या प्रतिबंधक गृह की स्थापना की साथ ही विधवा विवाह की परंपरा शुरू की। 24 सितंबर, 1873 को सत्यशोधक समाज की स्थापना उन्हीं की देन है। सावित्रीबाई को पहले किसान स्कूल की संस्थापक होने का श्रेय भी जाता है। फुले दंपती के संगठित संघर्ष का ही नतीजा था कि सरकार को कृषि कानून पास करना पड़ा।

एक बार आत्महत्या करने जा रही एक विधवा ब्राह्मण महिला काशीबाई का घर में ही प्रसव करवाकर सावित्रीबाई ने उसके बच्चे यशंवत को अपने दत्तक पुत्र के रूप में गोद लिया और पाल-पोसकर उसे डाक्टर बनाया। वर्ष 1897 की बात है। प्लेग के भीषण प्रकोप से मुंबईवासी जब चूहों की तरह मर रहे थे तब खुद की जान की परवाह किए बिना सावित्रीबाई ने प्लेग रोगियों की सेवा में दिन-रात एक किया हुआ था। दुर्भाग्य से 10 मार्च, 1897 को इस महामारी ने उन्हें भी निगल लिया।

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