विगत अंक में हमने देखा कि श्री हनुमान जी प्रभु श्री राम जी को सुग्रीव तक ले जाने हेतु पूरी तरह कमर कसे हुए हैं। और बातों ही बातों में यह नींव रख दी कि हे प्रभु! आप सुग्रीव को अपना मित्र बना लीजिए। अन्यथा वह दास तो आपका है ही। श्रीराम जी हनुमान जी को निहार कर अपनी किसी विशेष सोच में डूबे हैं। वह सोच यह कि क्यों अनेकों जीव जोड़ने की बजाय सिर्फ तोड़ने में ही विश्वास रखते हैं। हमारी अयोध्या नगरी को ही ले लीजिए। मंथरा को आखिर किस बात की कमी थी। हमने उसे शिशु काल से ही बांचा है। दुराव व विलगता के भाव तो उसमें संस्कारों से ही थे। और अपनी कपट कला का प्रदर्शन वह कितना समय पहले ही कर देती। लेकिन इसके लिए उसे माता कैकेई जैसा उपयुक्त पात्र ही नहीं मिला। उसकी जीवों को मुझसे तोड़ने की कला में महारत तो देखिए कैसे−कैसे उसने कद्रू व विनीता की पौराणिक कथा में भी सौतन भाव वाला विष घोल कर माता कैकेई के मस्तिष्क में भी विष घोल दिया। और इधर श्री हनुमान जी सुग्रीव के हृदय से मेरे प्रति समस्त प्रकार के विष हरने को आतुर हैं। और कैसे हनुमान जी सुग्रीव को मुझे मेरे मित्र के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। क्योंकि मित्रता तो प्रायः बराबर वालों में ही होती है। तो हनुमान जी ने मुझमें और सुग्रीव में आखिर समानता ढूंढ़ ही ली। यह ठीक भी तो है। क्योंकि मुझमें और सुग्रीव में तो अनेकों ही समानताएं विद्यमान भी हैं। हम दोनों ही थोड़ा अधिक सम्मान के हकदार हैं। क्योंकि हमें तो राज सिंहासन पर बिठाने की मात्र केवल घोषणा ही हुई थी। लेकिन सिंहासन पर बैठने से पहले ही हमें अयोध्या से निकलना पड़ा। यद्यपि सुग्रीव तो कुछ दिन सिंहासन पर विराजमान भी हुए थे।
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